रांची (झारखंड). मेट्रो शहरों में लिव-इन रिलेशनशिप भले ही नया हो, मगर झारखंड के आदिवासी समाज में यह बरसों पहले से मौजूद है। हालांकि, ये यहां प्रथा नहीं, एक सजा है। विडंबना यह है कि बड़े शहरों से शुरू हुई कानूनी लड़ाई में सुप्रीम कोर्ट ने तो लिव-इन रिलेशनशिप को वैधता दे दी, लेकिन राज्य के खूंटी, गुमला, सिमडेगा जैसे आदिवासी बहुल शहरों में लिव-इन रिलेशनशिप में रह रहे जोड़े आज भी सामाजिक बहिष्कार का शिकार हैं।
दरअसल, आदिवासी समाज का नियम है कि शादी के समय पूरे गांव और रिश्तेदारों को दो वक्त की दावत देनी होती है। मांस-चावल खिलाना होता है। हंड़िया-शराब पिलानी पड़ती है। खर्च करीब एक लाख रुपए तक आता है। जो जोड़े यह नियम पूरा नहीं कर पाते उनके विवाह को समाज मान्यता नहीं दे पाता। यह चौंकाने वाली रस्म नहीं, बल्कि इसके भुक्तभोगियों का आंकड़ा है।
आदिवासी समाज के बीच काम करने वाली संस्थाओं के मुताबिक यहां ग्रामीण क्षेत्रों में रह रहे करीब 6-7% विवाहित जोड़े यानी 2 लाख से ज्यादा जोड़े लिव-इन में ही रह रहे हैं। ऐसे जोड़ों का विवाह करने वाली संस्था निमित्त फाउंडेशन की सचिव निकिता सिन्हा को भास्कर ने इस रिपोर्ट के लिए बतौर एक्सपर्ट अपनी टीम में शामिल किया। उनके साथ हमारी टीम 3 जिलों के 10 गांवों में गई।
सबसे ज्यादा जोड़े बसिया गांव में
- खूंटी, सिमडेगा और लोहरदगा के 10 गांवों में 358 जोड़े लिव-इन में रहने को मजबूर हैं। रांची में 2018-2019 में लिव इन में रहने वाले 175 जोड़ों की शादी कराई गई थी। मगर फिर भी समाज में इनकी शादी मान्य नहीं है। ऐसे करीब 120 जोड़ों से बात की। समाज के डर से ज्यादातर जोड़े तो बात करने के लिए भी तैयार नहीं थे।
- 50 जोड़ों ने बात तो की, मगर सिर्फ 10 ही कैमरे के सामने बात करने को तैयार हुए। गांव में किसी कार्यक्रम में वे शामिल नहीं हो सकते, महिलाओं को मुंडारी-संथाली में ढुकू या ढुकनी कहा जाता है। ढुकनी का अर्थ है-बिना शादी के घर में पुरुष के साथ घुसना या रहना।
गांव | जोड़ों की संख्या |
बसिया | 182 |
घाघरा | 40 |
गुमला | 25 |
पालकोट | 25 |
मनातू | 11 |
सिमडेगा | 07 |
चटकपुर | 24 |
तोरपा | 24 |
खूंटी | 20 |
कुल | 358 |
ऐसे जोड़ों के बच्चों को पैतृक संपत्ति में अधिकार नहीं मिलता
मरने के बाद समाज के अंतिम संस्कार स्थल पर इन्हें दफनाने भी नहीं दिया जाता। आदिवासी बहुल जिले खूंटी से सांसद बने अर्जुन मुंडा को जनजातीय मामले का केंद्रीय मंत्री बनाए जाने के बाद से ऐसे जोड़ों में उम्मीद जगी है कि वे ‘ढुकनी’ बनी महिलाओं के आंसू पोछेंगे। पुरुषों को सम्मान और उनके बच्चों को अधिकार मिलेगा।
मजबूरी: मां-बाप और बेटे ने साथ की शादी
गुमला के मनातू गांव में एक ऐसा परिवार है, जिसकी दो पीढ़ियां लिव इन में रही। मजबूरी में अब बाप-बेटे को एक साथ शादी करनी पड़ी। रामलाल मुंडा कोलकाता में काम करते हैं। 27 साल पहले उन्होंने सहोदरी देवी के साथ रहना शुरू किया था। गांव वालों को भोजन नहीं करा सके तो पैसा कमाने कोलकाता चले गए। अब उनका बेटा नितेश्वर अरुणा मुंडा के साथ बिना शादी रहने लगा। वो तीन साल से लिव इन में था। रांची में 14 जनवरी 2019 को सामूहिक विवाह कार्यक्रम में पिता रामलाल ने सहोदरी देवी और बेटे नितेश्वर ने अरुणा से शादी की।
महिलाओं को सजा: महिलाएं सिंदूर नहीं लगा सकती हैं। लोहे या लाख की चूड़ियां नहीं पहन सकतीं। वे पूजा-पाठ में शामिल नहीं हो सकतीं। गांव के मर्द और महिलाएं उन्हें हिकारत भरी नजरों से देखती हैं। गांव की औरतों से हंसने-बोलने पर भी पाबंदी रहती है।
मर्दों की पीड़ा: पुरुषों को सामाजिक बहिष्कार का सामना करना पड़ता है। किसी के घर शादी-संस्कार, पूजा-त्योहार में नहीं जा सकते। अपने घर भी जाने पर रोक रहती है। भोज-भात दिए बिना शादी कर ली तो माता-पिता, भाई-बहन भी अलग कर देते हैं।
बच्चों का दर्द: बच्चों को पैतृक संपत्ति में हिस्सा नहीं मिलता है। बच्चियों की कानछेदनी की रस्म नहीं होती। बड़े होने पर बच्चों की शादी नहीं होती। गांव के बच्चे भी उन्हें ताना देते हैं। उनके संग खेल नहीं सकते। स्कूलों में पढ़ने-लिखने में दिक्कत होती है।
अंत भी दुखद: लिव इन में रहने के दौरान जोड़े में से किसी की मौत हो जाए तो उन्हें गांव में दो गज जमीन नहीं मिलती। शव को गांव के सार्वजनिक कब्रगाह से अलग बाहर दफनाया जाता है। कब्र पर पारंपरिक पत्थलगढ़ी करने की मनाही होती है।