वाराणसी. बनारस हिंदू विश्वविद्यालय के प्रोफेसर डॉक्टर राजीव श्रीवास्तव ने 53 लाख रुपए का कर्ज लेकर 2720 स्क्वॉयर फिट जमीन पर सुभाष भवन बनवाया है। यह भवन कूड़ा बीनने वालों, असहाय व गरीबों बच्चों का अपना घर है। यहां एक छत के नीचे 40 बच्चे रहते हैं, जिनमें 28 मुस्लिम व 12 हिंदू हैं। किचन का नाम अन्नपूर्णा है, जिसकी इंचार्ज नाजनीन अंसारी हैं। जबकि पूजा घर, भगवान की आरती व भोग का इंतजाम करना मुस्लिम युवती ईली की जिम्मेदारी है। डॉक्टर राजीव ने कूड़ा बीनने वाले बच्चों को बच्चों को पढ़ाने के लिए अपना घर परिवार छोड़ दिया। वे अब तक करीब 700 बच्चों को शिक्षा दे चुके हैं।
इसी साल फरवरी में बनकर तैयार हुआ भवन
प्रोफेसर राजीव ने 2016 में सुभाष भवन के लिए जमीनी खरीदी थी। जिसका 17 जून 2018 को शिलान्यास किया गया। इससे पहले वे किराए के घर में रहते थे। इसी साल 18 फरवरी को भवन में शिफ्ट हुए। यहां के सभी बच्चे सरकारी क्वींस कॉलेज और जीजीआईसी में पढ़ते हैं। 10 बच्चे हायर एजुकेशन में है, जिनमें अर्चना और नजमा बीएचयू से पीएचडी कर रही हैं। नाजनीन बीएचयू से एमए कर चुकी हैं।
ड्रम की धुन से होती है सुबह
यहां सुबह पांच बजे ड्रम बजता है। नित्य क्रिया के बाद रोज भारत माता की प्रार्थना होती है। रविवार को तिरंगे के साथ जय हिंद भारत सलामी सभा होती हैं। फिर बच्चे स्वच्छता अभियान में लग जाते हैं। उद्देश्य होम ऑफ सेक्रिफायस यानि त्याग सभी को करना है। प्रति दिन 5 बजे बिगुल बजता है और 30 मिनट मीटिंग होती है। बच्चे डेली रिपोर्ट देते हैं, क्या पढ़ें क्या खाए।
अनुशासन को लेकर कई कमेटियां
सुभाष भवन में अनुशासन के लिए कई कमेटियां बनी हुई हैं। स्वच्छता, बाथरूम बिहेवियर, जल संरक्षण, भोजन, खर्च, विधुत संरक्षण कमेटी है। अनुशासन समिति, अन्नपूर्णा समिति, कूड़ा निस्तारण समिति, सुरक्षा समिति सभी का देख रेख बच्चे ही करते हैं।
तीन तरह के पास बनते यहां
सुभाष भवन में बच्चों के लिए तीन तरह के पास बनाए जाते हैं। अस्थाई, परमानेंट, अल्पकालिक। अल्प कालिक पास रिसर्च वालों को दिया जाता है, जो सुभाष भवन, नेता सुभाष चंद्र बोस जी, विशाल भारत, अनाज बैंक, चिल्ड्रेन बैंक, गुरु इंद्रेश कुमार जी पर रिसर्च करता हो। अस्थाई जो एक दिन के लिए किसी से मिलने आया हो। परमानेंट पास जो हमेशा सुभाष भवन से जुड़ना चाहता हो।
1988 में स्टेशन पर बच्चों को पढ़ाना शुरू किया
राजीव बताते हैं कि उन्होंने मुगलसराय में 1988 में कुछ बच्चो को प्लेटफॉर्म नंबर पर पढ़ाना शुरू किया। 1992 में पिता डॉक्टर राधेश्याम श्रीवास्तव ने शर्त रख दी कि या तो परिवार चुन लो या बच्चों के साथ रह लो। उसी दिन केवल मार्कशीट लेकर बनारस रेलवे स्टेशन आ गया और फिर पलटकर पीछे नहीं देखा। तीन महीने लगातार बनारस के स्टेशन को आशियाना बनाना पड़ा था। काशी विद्यापीठ से ही पीएचडी की। 1996 में काशी विद्यापीठ में संविदा पर पढ़ाने का मौका मिला। 2007 में बीएचयू में जॉब मिल गई। अब 700 से ऊपर बच्चों को अपने पैसे से तालीम दी है।