सूरत : कार हादसे में पिता को खोया तो उनकी याद में 170 बेसहारा माता-पिता को इलाज के साथ रोज खाना खिला रहे दो भाई

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सूरत. अलथाण के रहने वाले दो सगे भाई गौरांग और हिमांशु सुखाड़िया रोज 170 ऐसे असहाय बुजुर्ग माता-पिता को मुफ्त खाना खिलाने के साथ उनका इलाज भी कराते हैं, जो किसी कारणवश अपने बच्चों के साथ नहीं रहते या उनके बच्चों ने उन्हें छोड़ दिया है। खानपान की दुकान चलाने और प्रॉर्पटी इन्वेस्टमेंट का काम करने वाले गौरांग को बुजुर्गों की सेवा करने का यह ख्याल पिता को कार हादसे में खोने के बाद आया।

 

हादसे के वक्त कार में गौरांग भी थे, लेकिन बच गए। बेसहारा माता-पिता को खाना खिलाने का सिलसिला उन्होंने 2016 में शुरू किया था। पहले रोज 40 बुजुर्गों को खाना पहुंचाते थे, अब 170 को। गौरांग का कहना है कि इसके लिए किसी से मदद नहीं मांगी। कभी-कभी लोग खुद ही मदद कर देते हैं। इस काम पर हर माह 1 लाख 70 हजार रुपए खर्च होते हैं।

 

होटल में भी खाना खिलाने ले जाते हैं 

गौरांग का कहना है कि बच्चों द्वारा त्याग दिए गए माता-पिता के दर्द को कोई कम नहीं कर सकता है। हां, कुछ समय के लिए उनका दर्द बांटा जा सकता है। गौरांग बताते हैं कि 2008 में वह अपने पिता के साथ कार से कहीं जा रहे थे। कार का एक्सीडेंट हो गया। पिता की मौत हो गई, लेकिन वह बच गए। उसके बाद उन्हें लगा कि अपने पिता के लिए तो वह कुछ नहीं कर सके, लेकिन अन्य माता-पिताओं को कुछ सुख वह जरूर देंगे।

हर दिन अलग-अलग तरह का भेजते हैं खाना 
गौरांग बताते हैं कि हर दिन सभी 170 बुजुर्गों के घर टिफिन पहुंचाया जाता है। उनके खाने का पूरा ध्यान रखा जाता है। भागल में हर दिन सुबह 6 बजे से अलग-अलग दिन के मेनू के मुताबिक खाना बनाने का काम शुरू किया जाता है। खाना बनाने के लिए कर्मचारी रखे गए हैं। लगभग 11 बजे 4 ऑटो चालकों के माध्यम से खाना सभी को भेज दिया जाता है। इस काम में एक दिन भी अवकाश नहीं होता। पूरी व्यवस्था की निगरानी वह स्वयं करते हैं।

 

कई बेटों को शर्म आई तो अपने माता-पिता को साथ ले गए 
गौरांग भाई ने बताया कि खाना खिलाने के साथ बुजुर्गों की अन्य जरूरतों का भी खयाल रखते हैं। दवा के साथ, आंख की जांच और चश्मा तक उपलब्ध कराते हैं। समय मिलते ही सभी से मिलकर उनका हाल-चाल भी जानते हैं। यह भी जानने की कोशिश करते हैं कि आखिर उनके बच्चों ने उन्हें क्यों छोड़ा। उनके इस काम को देखकर कई बेटों को शर्म आई और वे अपने माता-पिता को अपने साथ रखने को तैयार हुए। गौरांग का कहना है कि यह उनकी सेवा की सबसे बड़ी सफलता है।

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