किसानों के बहाने केंद्र पर निशाना:सामना में शिवसेना ने लिखा- अपने कर्मों का फल भुगत रही सरकार, वे कृषि को उद्योगपतियों का निवाला बना रहे

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शिवसेना ने किसानों के 8 दिसंबर के बंद को लेकर अपना समर्थन जाहिर किया है।

दिल्ली, पंजाब और हरियाणा बॉर्डर पर आंदोलन कर रहे किसानों के समर्थन में शिवसेना ने एक बार फिर ‘सामना’ अखबार में संपादकीय लिखा है। इसमें किसानों के बहाने केंद्र सरकार और प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी पर निशाना साधा गया है। शिवसेना ने पार्टी के मुखपत्र में लिखा है कि किसानों की नाराजगी सरकार के कर्मों का फल है। उनसे आंदोलन संभल नहीं रहा, वे सिर्फ टाइम पास कर रहे हैं। शिवसेना ने कहा है कि सरकार कृषि को उद्योगपतियों का निवाला बना रही है और यह देशी ईस्ट इंडिया कंपनी की शुरुआत है।

धर्म के नाम पर फूट डाल चुनाव जीतना आसान
शिवसेना ने पार्टी के मुखपत्र में लिखा है,’दिल्ली में किसान आंदोलन आज ऐसी अवस्था में पहुंच गया है कि आगे के मार्ग को लेकर संभ्रम की ही स्थिति है। सरकार हैदराबाद महानगरपालिका में जीत-हार में संतुष्ट हो रही है तथा वहां दिल्ली की सीमा पर किसानों का घेरा उग्र होता जा रहा है। येन-केन-प्रकारेण समाज में जाति-धर्म के नाम पर फूट डालकर फिलहाल चुनाव जीतना आसान है। लेकिन, दिल्ली की दहलीज पर पहुंच चुके किसानों की एकजुटता में फूट डालने में असमर्थ सरकार मुश्किलों में घिर गई है।

किसानों को लेकर सरकार सिर्फ टाइम पास कर रही है
सामना में आगे लिखा गया,’दिल्ली में आंदोलनकारी किसान और केंद्र सरकार के बीच पांच दौर की चर्चा परिणाम रहित रही है। किसानों को सरकार के साथ चर्चा में बिल्कुल भी दिलचस्पी नजर नहीं आ रही है। सरकार सिर्फ टाइमपास कर रही है और टाइमपास का उपयोग आंदोलन में फूट डालने के लिए किया जा रहा है। किसान आंदोलनकारियों ने स्पष्ट कहा है कि ‘कृषि कानून रद्द करोगे या नहीं? हां या ना, इतना ही कहो!’ सरकार ने इस पर मौन साध रखा है।

मोदी और शाह के अलावा सरकार में सभी चेहरे निस्तेज
सामना में शिवसेना ने लिखा,’सरकार में चुनाव जीतने, जीताने, जीत खरीदनेवाले लोग हैं। परंतु किसानों पर आए आसमानी-सुल्तान संकट, बेरोजगारी ऐसी चुनौतियों से दो-दो हाथ करनेवाले विशेषज्ञों की सरकार में कमी है। मोदी व शाह इन दो मोहरों को छोड़ दें तो मंत्रिमंडल के अन्य सभी चेहरे निस्तेज हैं। उनकी व्यर्थ भागदौड़ का महत्व नहीं है। एक समय सरकार में प्रमोद महाजन, अरुण जेटली, सुषमा स्वराज ऐसे संकटमोचक थे। किसी संकटकाल में सरकार के प्रतिनिधि की हैसियत से इनमें से कोई भी आगे गया तो उनसे चर्चा होती थी व समस्या हल होती थी। आज सरकार में ऐसा एक भी चेहरा नजर नहीं आता है। इसलिए चर्चा का पांच-पांच दौर नाकाम सिद्ध हो रहा है।’

सरकार कृषि को उद्योगपतियों का निवाला बना रही है
संपादकीय में लिखा गया है, ‘जल्दबाजी में मंजूर कराए गए कृषि कानून को लेकर देश भर में संताप है। पंजाब, हरियाणा के किसानों में इस संताप को लेकर आक्रोश व्यक्त किया इतना ही। कृषि कानून का लाभ किसानों को बिल्कुल भी नहीं है। सरकार कृषि को उद्योगपतियों का निवाला बना रही है। हमें कार्पोरेट फार्मिंग नहीं करनी है इसीलिए ये कानून वापस लो, ऐसा किसान कहते हैं।’

देशी ईस्ट इंडिया कंपनी की यह शुरुआत है
शिवसेना ने सामना में लिखा,’मोदी सरकार आने के बाद से ‘कार्पोरेट कल्चर’ बढ़ा है ये सत्य ही है। परंतु हवाई अड्डे, सरकारी उपक्रम दो-चार उद्योगपतियों की जेब में तय करके डाले जा रहे हैं। अब किसानों की जमीन भी उद्योगपतियों के पास जाएगी। अर्थात एक तरह से पूरे देश का ही निजीकरण करके प्रधानमंत्री वगैरह ‘सीईओ’ के तौर पर काम करेंगे। देशी ईस्ट इंडिया कंपनी की यह शुरुआत है। ईस्ट इंडिया कंपनी यूरोप से आई और शासक बन गई। अब स्वतंत्र हिंदुस्थान में सरकार देशी ईस्ट इंडिया कंपनी की स्थापना करके किसानों, मेहनतकश वर्ग को लाचार बना रही है। उस संभावित गुलामी के खिलाफ उठी यह आग है।

जॉर्ज के ‘चक्का जाम’ आंदोलन की दिशा में जा रहे किसान
सामना ने लिखा,’परंतु स्वाभिमान और स्वतंत्रता के लिए लड़नेवाले किसानों को खालिस्तानी और आतंकी ठहराकर मारा जा रहा होगा तो देश में असंतोष की आग भड़केगी। इस असंतोष की चिंगारी अब उड़ने लगी है। किसान संगठनों ने 8 दिसंबर को ‘हिन्दुस्तान बंद’ का आह्वान किया है। यह बंद जोरदार हो, ऐसी तैयारी चल रही है। इससे पहले वर्ष 1974 में जॉर्ज फर्नांडिस के आह्वान पर किए गए रेलवे बंद से पूरे देश की राजनीति बदल गई थी। रेलवे की हड़ताल से पूरा देश ठप हो गया। ‘चक्का जाम’ यह शब्द इसी आंदोलन से उदित हुआ। यह चक्का जाम 8 मई से 15 मई, 1974 तक चला। पूरे देश में सरकार विरोधी आंदोलन तैयार हुआ। सर्वशक्तिमान इंदिरा गांधी भी दहल गर्इं व बाद में देश में कई राजनैतिक परिवर्तन हुए। दिल्ली की सीमा पर किसानों का आंदोलन जॉर्ज के ‘चक्का जाम’ आंदोलन की दिशा में ही जा रहा है।’

बिना किसी चेहरे के बड़ा हुआ किसान आंदोलन
8 दिसंबर को यह देशव्यापी बंद सफल हुआ तो मोदी सरकार के लिए यह किसानों की नोटिस सिद्ध होगी। आश्चर्य की बात ये है कि आंदोलनकारी किसानों का कोई मजबूत सर्वशक्तिमान नेता नहीं है। उनमें कोई सरदार पटेल नहीं है, जयप्रकाश नारायण नहीं या चंद्रशेखर नहीं। परंतु कई संगठनों की गांठ फिर भी मजबूती से बांधी गई और उसमें से एक भी गांठ सरकार खोल नहीं पाई। यही आंदोलन का यश है। दिल्ली की सीमा पर पहुंचा हर किसान नेता ही है, ऐसा माहौल हुआ तब राजसत्ता आंदोलनकारियों का कुछ भी बांका नहीं कर सकती।

जनता भड़क जाती है तो सरकारें गिर जाती हैं
शिवसेना ने लिखा,’सरकार अब प्रतिष्ठा का मुद्दा बनाकर किसानों की आवाज न दबाए। जनता भड़क जाती है और अनियंत्रित हो जाती है तब बहुमत की सरकारें भी डगमगाकर गिर जाती हैं तथा बलवान समझा जानेवाला नेतृत्व उड़ जाता है। किसानों ने तय किया है कि अब पीछे नहीं। किसान अब दिल्ली में घुसकर संसद भवन को घेरने की तैयारी कर रहे हैं। मतलब 10 दिसंबर को प्रधानमंत्री मोदी नए संसद भवन के भूमिपूजन का मुहूर्त करेंगे व उसी समय पुराने ऐतिहासिक संसद भवन पर पहुंचने की तैयारी कर रहे किसानों पर सरकार आंसू गैस और बंदूक चलाएगी। पेट के लिए सड़क पर उतरे लोगों पर गोली बरसाना अथवा उन्हें पैरों तले रौंदना यह उद्दंडता सिद्ध होगी। अर्थात यह कृति सरकार के अंत की शुरुआत सिद्ध होगी।

यह सरकार के कर्मों का फल है
शिवसेना के मुखपत्र में आगे लिखा गया है, ‘किसानों को आंदोलन करने का अधिकार है। उसी अधिकार से वे दिल्ली में दृढ़ता के साथ आंदोलन कर रहे हैं। उन्हें जो कृषि कानून जुल्मी लग रहा है उसे वापस लेने में सरकार को भी हिचकिचाने की कोई वजह नहीं है। कदाचित यह मन का बड़प्पन सिद्ध होगा। सरकार के आदेशानुसार किसानों से चर्चा करनेवालों को इसका भान नहीं है। प्रकाश सिंह बादल, शरद पवार जैसे मान्यवर किसान नेताओं से चर्चा करने का प्रयास इस कठिन काल में किया होता तो आज की यह गुत्थी थोड़ी आसान हो गई होती। आज परिस्थिति बिगड़ती जा रही है यह सरकार के ही कर्मों का फल है।’

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